بسم الله الرحمن الرحمن
أُكذوبةٌ مُفبركةْ..!
أُضحوكةٌ محقَّقة..!
أحدوثةٌ منمقة..!
لن تبلغَ اليومَ العَرَبْ..!
لن تبلعَ الآنَ الذهب..
فحِصنُنا قد التهب..
وجيشُنا قد اصطبر..
وعلمُنا فوقَ الرُّتب..
وفكرُنا لا ينسحب..!
وقد بنينا دونَها كل الحُجُب..!
ولم تَعُد لتنتصر..
تقوَّى بأسُنا..
وثار غيظُنا..
وهبَّ أمرُنا...
وصارت الأفضوحة..!
وإننا بالسيفِ والجلمود...
سنُردي حدَّها..
ونلُغي شكلَها..!
وربَّ خُطبةٍ عصماء..
وحُطّة بعيدة المَدَاء...
ونزهةٍ فارهة غراء..
تذيب نبضَها..
فتستحى من دارنا..
وتسلكُ الوراء..
لأنَّها أكذوبةٌ الأيام..!
وقِصةٌ ليس لها خُطام..
ولن يضيرَ شعبَنا..
نباحُها الصخاب..
أو وهجها الوثاب..!
لأنها عولمةُ معلَّبة..
وقصةٌ مضطربة..
ولم تع عُربتَنا المُعرَّبة..
وسُفْننُا المُكهربة..
والقبيلةْ المُلتهبة..
وإنْ حمَى حامٍ..
فعندنا الزيرُ..
وثَمَّ عنترة..!
نَكيلُهم بالصاعِ..
كيلَ السندرة..
لأننا العالمُ
وُهْمُ العولمة..!
ما نسبةُ البعوضِ..
عند الحَيدرة..؟!
ما قيمةُ المعزول..
عند العسكرة..؟!
فلا تكرِّر عولمة..!
ولا تردِّد شوملة..!
فكلها ترمى.
بتلك المَزبلة..!
وحينها تنامُ..
نـــوم القائلة..
وتحلم الأحلامَ..
ذي المفضلة..!